शोले में असरानी का एक संवाद है - हर जगह से हमारी कुछ ही दिनों में बदली कर दी जाती है। लेकिन, इतनी बदलियों के बाद भी हम नहीं बदलें...
हालांकि असलियत यही है कि ज़िंदगी में लगतार बदलाव आते रहते हैं। न तो हम एक से रह पाते हैं और न ही परिवेश एक-सा रह पाता है। इन्हीं बदलावों में से कभी कोई बदलाव हमें अच्छे लगते हैं, तो कभी कुछ बदलावों से मन दुखी हो जाता है। फिर भी बदलाव नहीं बदलते। वो हर थोड़े दिनों में हमारे दरवाज़ें पर दस्तक दे ही देते हैं। कभी शहर बदल दिया जाता है, कभी दोस्त बदल जाते हैं, कभी काम करने की जगह बदला जाती हैं, तो कभी हमारी अपनी सूरत ही बदल जाती है। बदलावों की इस प्रकृति से वाकिफ होने के बावजूद मुझे वो कभी पसंद नहीं आए। मसला हमेशा से ये रहा कि नई चीज़ों से तालमेल में ही मैं इतना वक़्त गुज़ार देती हूँ कि जब तक गाड़ी पटरी पर आती है सब फिर बदल जाता है। ग्रेजुएशन के दौरान जब तक कॉलेज के माहौल में ढल पाती कोर्स पूरा हो गया। और भी कई बार कई बातें ऐसे ही बदलाव की बयार में बहती चली गई। भोपाल से अकेले दिल्ली आना मेरी ज़िंदगी का अब तक का सबसे बड़ा बदलाव रहा है। आराम की ज़िंदगी को छोड़कर यहां अपनी तबीयत खराब करना मेरी पसंद का बदलाव है?? ये सवाल मुझे हमेशा से ही परेशान करता है। बदलाव और बदहाल तब लगते है जब पैसे की तंगी हो। फिलहाल मेरी कमाई इतनी है कि उधार न मांगना पड़े। किसी तरह की कोई लग्ज़री उठाने की कूबत अभी नहीं है। मर मरकर भी बस में सफर इसलिए की दिन के 14 रुपए लगते हैं, जबकि ऑटो में एक तरफ का किराया ही 60 रुपए है। कनॉट प्लेस जाना भी कभी-कभी ही होता है, वहां बड़े-बड़े शो रूम में सजे कपड़ों को देखकर मन उदास हो जाता था। इस सबके बीच कुछ सोच को दिलासे के जैक से ऊंचा उठाया कि ये सब तो मोह माया है। और, इसी जीवन में मैं एक बार फिर ढल गई। अब तो बस की भीड़ और लटके लोगों को देखकर भी मन नहीं करता कि ऑटो से चली जाऊं। मन में नकारात्मक ख्यालों की बाढ़-सी आ जाती हैं। ऐसे में बसों में सफर करते वक़्त कइयों के मुंह से बदलाव का ये दर्द सुना है। कोई कहता है अपना शहर ही अच्छा है हम तो यहां आकर फंस गए है। क्या बढ़िया दिन थे। ये थे, वो थे..... लेकिन, इन्हीं के बीच किसी की आवाज़ आती हैं नहीं ऐसा नहीं है कुछ बनना है तो इतना तो सहना ही पड़ेगा। अपने शहरों में सूकून था तो यहां आगे बढ़ने के मौक़े है। क्या दुखी हो जाते हो बात बात पर। ये बात कानों में पड़ते ही लगता है कि अंजान मुझे ही समझा रहा है। ऐसा नहीं है कि हर एक इंसान बदलावों से दुखी है। कोई खुश भी है और कोई खुश होने की कोशिश में।
जब बस में ठूंसे हुए ये सब सुनती हूँ तो मन को दिलासा मिलती है कि सच ही कहा है - हर किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता, कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता...
1 comment:
सही सोच...सब कुछ सबको तो नहीं मिल सकता न।
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