क्या आपने कभी मुर्गियों को बूचड़खाने जाते देखा हैं? एक जंग लगे से पिंजरे में बंद, एक की जगह पर दो या चार मुर्गियाँ ढूंसी हुई। एक दूसरे पर चढ़ी हुई, चोंच मारती हुई। पंख फड़फड़ाकर उड़ने की नाकाम कोशिशें करती हुई। ऐसा ही कुछ मैं आजकल महसूस कर रही हूँ। हालांकि दोनों की परिस्थितियों में अंतर हैं। वो मुर्गियों ये नहीं जानती हैं कि वो ऐसी क्यों हैं और वो कहां जा रही हैं। लेकिन, मैं ये सब जानती हुए भी उस पिंजरे में रोज़ाना चढती हूँ। बस में ढूंसकर, लटककर, हाथ कहीं, पांव कहीं, बैग कहीं और चोटी कहीं... कभी मैं किसी के पैर पर पैर रखती हूँ तो कभी कोई मेरे पैर पर...
हालांकि रोज़ाना का मेरा बस का सफर वैसा ही होता है जैसा कि मेरे पास खड़े इंसान का होता होगा। लेकिन, फिर भी मुझे रोज़ाना एक नया अनुभव मिल ही जाता हैं। हो सकता हैं कि मैं कुछ ज़्यादा ही सोचती हूँ। आजकल जिस वक़्त में बस स्टॉप पर पहुंचती हूँ वो पीक टाइम होता हैं। यानी कि ऑफ़िस जानेवालों का वक़्त... मुझे जाना भी होता है दफ़्तर जिस रूट पर सरकारी दफ़्तरों की भरमार हैं। पिछले एक हफ़्ते से मैं पायदान पर यात्रा न करें.... से टिककर गणेश नगर से आइटीओ तक जाती हूँ। कई बार लटकना भी पड़ जाता हैं। ठंडी-ठंडी हवा सीधे मुंह पर लगती है... लेकिन, क्योंकि मैं एक लड़की हूँ मुझे ऊपर कर दिया जाता हैं। जैसे ही बस के दरवाजे पर मैं लटकी कि अंदर कंडक्टर का चिल्लाना शुरु हो जाता हैं - अरे लेडीज़ सवारी लटकी हुई है इसे ऊपर चढ़ाओ... कभी-कभी भीड़ में खड़े हुए आंखों में आंसू आ जाते हैं, लगता है कि क्या बुरी ज़िंदगी हो गई है। कैसे हम जानवरों की तरह यूं मर-मरकर जी रहे हैं।
इतना सब कुछ सहने के बाद भी बस का सफर जारी है... आखिर क्यों? इसका जवाब मन ये देता हैं कि कुछ बनना है तो ये तो करना ही पड़ेगा। जो सपना देखा हैं वो शायद इसी रास्ते से पूरा होगा। मेरे अब तक के बस के सफर से जुड़े सभी अनुभव मुझे हमेशा याद रहेंगे। वो बस में पापा की याद आ जाना हो या फिर बस में लोगों कि बदलती हुई नीयतें या फिर बस में छूटनेवाले गालियों के बाण... कभी-कभी लगता हैं कि बस के सफर पर ही मैं पीएचडी कर लूँ। कितने ही तरह के लोगों से रोज़ाना जाने अंजाने बातचीत हो जाती हैं। कभी बैग पकड़ाते हुए, कभी बैग पकड़ते हुए। कभी साइड में होने के लिए चिल्लाते हुए। कभी लोगों के बीच गाली गलौच हो जाती हैं, हाथापाई तक की नौबत आ जाती हैं। तो कभी अंजाने भी यूँ घुल मिलकर बातें करते हैं कि सालों के दोस्त हो। किसी दिन बस में चल रहे टूटे दिल के गाने सुनते हुए सफर बितता हैं, तो कभी किसी के मोबाइल पर बजते नए गानों के बीच... दो दिन पहले तो एक के मोबाइल पर पत्थर के सनम और तुमने किसी की जान को... जैसे पुराने बेहतरीन गाने सुनने को मिल गए। एक दूसरे से सटे, दम साधे रोज़ाना मेरे जैसे कितने ही यूँ ही अपने-अपने कामों के लिए निकलते हैं। बस के इंतज़ार में आगे पीछे होते हुए, कौन-सी बस आ गई ये देखते हुए, भगवान से ये गुजारिश करते हुए कि बस इतनी खाली हो कि खड़े होने की जगह मिल जाए या फिर इतना कि लटकने भर को एक पैर रखने की जगह मिल जाए।
हालांकि रोज़ाना का मेरा बस का सफर वैसा ही होता है जैसा कि मेरे पास खड़े इंसान का होता होगा। लेकिन, फिर भी मुझे रोज़ाना एक नया अनुभव मिल ही जाता हैं। हो सकता हैं कि मैं कुछ ज़्यादा ही सोचती हूँ। आजकल जिस वक़्त में बस स्टॉप पर पहुंचती हूँ वो पीक टाइम होता हैं। यानी कि ऑफ़िस जानेवालों का वक़्त... मुझे जाना भी होता है दफ़्तर जिस रूट पर सरकारी दफ़्तरों की भरमार हैं। पिछले एक हफ़्ते से मैं पायदान पर यात्रा न करें.... से टिककर गणेश नगर से आइटीओ तक जाती हूँ। कई बार लटकना भी पड़ जाता हैं। ठंडी-ठंडी हवा सीधे मुंह पर लगती है... लेकिन, क्योंकि मैं एक लड़की हूँ मुझे ऊपर कर दिया जाता हैं। जैसे ही बस के दरवाजे पर मैं लटकी कि अंदर कंडक्टर का चिल्लाना शुरु हो जाता हैं - अरे लेडीज़ सवारी लटकी हुई है इसे ऊपर चढ़ाओ... कभी-कभी भीड़ में खड़े हुए आंखों में आंसू आ जाते हैं, लगता है कि क्या बुरी ज़िंदगी हो गई है। कैसे हम जानवरों की तरह यूं मर-मरकर जी रहे हैं।
इतना सब कुछ सहने के बाद भी बस का सफर जारी है... आखिर क्यों? इसका जवाब मन ये देता हैं कि कुछ बनना है तो ये तो करना ही पड़ेगा। जो सपना देखा हैं वो शायद इसी रास्ते से पूरा होगा। मेरे अब तक के बस के सफर से जुड़े सभी अनुभव मुझे हमेशा याद रहेंगे। वो बस में पापा की याद आ जाना हो या फिर बस में लोगों कि बदलती हुई नीयतें या फिर बस में छूटनेवाले गालियों के बाण... कभी-कभी लगता हैं कि बस के सफर पर ही मैं पीएचडी कर लूँ। कितने ही तरह के लोगों से रोज़ाना जाने अंजाने बातचीत हो जाती हैं। कभी बैग पकड़ाते हुए, कभी बैग पकड़ते हुए। कभी साइड में होने के लिए चिल्लाते हुए। कभी लोगों के बीच गाली गलौच हो जाती हैं, हाथापाई तक की नौबत आ जाती हैं। तो कभी अंजाने भी यूँ घुल मिलकर बातें करते हैं कि सालों के दोस्त हो। किसी दिन बस में चल रहे टूटे दिल के गाने सुनते हुए सफर बितता हैं, तो कभी किसी के मोबाइल पर बजते नए गानों के बीच... दो दिन पहले तो एक के मोबाइल पर पत्थर के सनम और तुमने किसी की जान को... जैसे पुराने बेहतरीन गाने सुनने को मिल गए। एक दूसरे से सटे, दम साधे रोज़ाना मेरे जैसे कितने ही यूँ ही अपने-अपने कामों के लिए निकलते हैं। बस के इंतज़ार में आगे पीछे होते हुए, कौन-सी बस आ गई ये देखते हुए, भगवान से ये गुजारिश करते हुए कि बस इतनी खाली हो कि खड़े होने की जगह मिल जाए या फिर इतना कि लटकने भर को एक पैर रखने की जगह मिल जाए।
फ़्लाई ओवर और मैट्रो के जाल में उलझती इस दिल्ली को पता नहीं कब एक ऐसी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली मिलेगी जो मुझ जैसों को रूम से निकलते वक़्त ये सोचने पर मजबूर न करें कि आज मैं लटकर जाऊंगी या दबकर....
10 comments:
rochak hai
शानदार। मैं भी इन्हीं वजहों से बस में चलने से बचता हूं। आप तो महिला हैं, आपको ना जाने कितनी परेशानी होती होगी। ख़ैर, हिम्मत मत हारिए। सब अच्छा होगा।
आपकी मुश्किलों को समझ रही हूं....महानगरों में पीक टाइम पर शायद यही हाल होता है.....नौकरी करनेवालों को खासी परेशानी आती है...इंतजार करें, जल्द ही सब ठीक हो जाए।
दीप्ती मैं आपके ब्लॉग को पढता रहता हूँ. खासकर बस को लेकर आपकी पोस्टों को. बसों से हमारी कई यादे जुरी है. आप अपनी पोस्ट में लिखती है- '' बस का सफर वैसा ही होता है जैसा कि मेरे पास खड़े इंसान का होता होगा। लेकिन, फिर भी मुझे रोज़ाना एक नया अनुभव मिल ही जाता हैं।''
कभी -कभी लगता है की आप कुछ ज्यादा परेशां हो जाती हैं लेकिन तभी लगता है की आपके अनुभव शायद शोध के रूप में हो.
बस स्टाप और गालियों का महामात्य भी रोचक मोर पर है. आप इसे आगे बढ़ा सकती हैं. दिल्ली की भाषाई और प्रवासियों के अनुभव को मज़ेदार ढंग से पेश किया जा सकता है. आप बस और मोबाइल को भी जोड़ कर अनुभव को आगे बढ़ा सकती हैं.
शुक्रिया
गिरीन्द्र
दीप्ती इसी का नाम तो ज़िन्दगी है. अगर कुछ दिन बस में सफर न करना पड़े तो हम उसे मिस करने लगते हैं. भला ये भी क्या ज़िन्दगी हुई जब सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो गया. ये बसों का धक्के और परेशानियाँ हमें आम बने रहने में बड़ी मददगार होती हैं.
asal me hamare aor murgiyo ke safar me mool antar pinjre ka hai wo kaid hai isiliye aazad nahi,hum aazad hoker bhi kaid hai.pinjra chahe shabdo ka ho,betakalluff chalo ya fir ghorti nazro ka,prashan azadi ko paribhasit kiye jane ka hai.
बहुत ही शानदार और जानदार रचना
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
mujhe aapke lekhni bahut pasand hai.. sach kahun to aapke batton ko padkar sab kuch aisa lagta hai .. jaise aap live hume sab dikha rahi ho.. kabhi mauka mila to vill c u ... take care
mujhe aapke lekhni bahut pasand hai.. sach kahun to aapke batton ko padkar sab kuch aisa lagta hai .. jaise aap live hume sab dikha rahi ho.. kabhi mauka mila to vill c u ... take care
हालाकीं मुजे अब तक दिल्ली कि बसों का सफर करनें का सुनहरा अवसर प्राप्त नहीं हुआ है,, पर एक बात मुजे डर लगता है..
अगर किसीने मुजे छेड़ दिया, और मेरे मुह से गंदी गाली निकल गइ तो...
एक और बात,, मैं बहोत ही सभ्रांत कुनबे से ताल्लुक रखती हुं.. पीछले साल आपका ब्लोग पढां तब एहसास हुआ कि दिल्ली मे रहतें हैं तो गालियां तो सिखनी पडेगी..
वैसे, रास्ता क्रोस करते वख्त बहोत सारे लफंगे मुजसे गालिंया सुन चुके हैं..
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