पंकज रामेन्दू मानव
पंकज की फ़िल्म समीक्षाएं आप लूज़ शटिंग पर पढ़ते आए हैं। इस बार भी पंकज ने समीक्षा ही की है, लेकिन कुछ हटकर। इस बार पंकज ने किसी फ़िल्म की नहीं बल्कि एक फ़िल्मी हफ़्ते ही समीक्षा की है।
31 दिसंबर की रात के बाद जो अगली सुबह होती है वो बड़ी अजीब सी होती है। थोड़ी अलसायी-सी, थोड़ी शांत और कुछ मुरझायी-सी। पूरी दुनिया के साथ फ़िल्मी सितारें भी झूमते हैं लेकिन ये व्यापारिक झूमना होता है जिसके एवज़ में कुछ मिलता है। असंख्य शराब की बोतलों औऱ मुर्गे की टांगो के साथ साल की अलसायी शुरूआत होती है। इस साल आंतकी हमला हुआ और कुछ जानें चली गई तो सभी ने थोड़ा ग़मज़दा होकर पीया। नए साल में हर बात नयी होती है सिर्फ़ एक बात को छोड़कर। वो है, थियेटर में लगी फ़िल्म, हर साल की तरह इस साल भी नये साल का शुक्रवार पुराना ही रहा। ये बॉलीवुड का बहुत पुराना विश्वास है या यूं कहिये की अंधविश्वास है कि साल का पहला हफ़्ता अपशगुनी होता है। इसलिए कोई भी डायरेक्टर इस हफ़्ते अपनी फ़िल्म रिलीज़ नहीं करता। इस साल जो फ़िल्म रिलीज़ होंगी उनकी शुरूआत होगी 9 तारीख से यानि जनवरी के दूसरे शुक्रवार से, इस हफ़्ते, काश मेरे होते, हॉर्न ओके प्लीज़, प्रेसिडेंट इज़ कमिंग जैसी फ़िल्में रिलीज़ होंगी। पिछले साल भी यही आलम था हल्ला बोल जैसी फ़िल्म साल के दूसरे हफ़्ते में रिलीज़ हुई अब ये बात और है कि फ़िल्म फिर भी कुछ कमाल नहीं कर सकी।
बॉलीवुड में विश्वास नाम की चीज़ नहीं होती है यहां स्क्रिप्ट चोरी होती है, यहां कलाकार,लेखक, निर्देशक सभी विश्वास करते हैं और उनका विश्वास टूटता है। कभी किसी का पैसा रुकता है तो कभी किसी को नहीं मिलता है। लेकिन, इस ना विश्वास करने वाले मनोंरंजन उद्योग में अंधविश्वास भरपूर है। कभी कोई अपने सीरियल का नाम के अक्षर से रखता है तो कभी कोई अपनी फ़िल्म का नामों के अक्षर बढ़ाता है। सितारों के नामों का घालमेल तो आम बात है, इसी के चलते कभी चौराहे पर तोता लेकर बैठने वालों की चल पड़ी है और अब वो सितारों का तोता बैठाते हैं। आंकड़ों के बाज़ीगर ये कहते हैं कि जनवरी के पहले हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म की नियति फ़्लॉप होना ही है। पिछले पंद्रह सालों के आंकड़ो पर नज़र डालें तो साल 2007 में कुड़ियों का है ज़माना और आई सी यू, दोनों फ़िल्में साल की शुरूआती त्रासदी रही। 2006 में आई जवानी-दीवानी और 15 पार्क एवेन्यू। ये फ़िल्में भी पिट गई। 2005 में तीन मध्यम बजट की फ़िल्म रिलीज़ हुई जिसमें वादा, रोग और यही है ज़िंदगी शामिल थी। रोग में विदेशी चमड़ी का प्रदर्शन हुआ। लेकिन, थियेटर खाली रहे। इसके अलावा वासु भगनानी की वादा और यही हैं ज़िंदगी कब आई और गईं पता नहीं चला। 2004 में रिलीज़ हुई इश्क है तुमसे, जिसने इन अंधविश्वासों को तोड़ा और फ़िल्म अच्छी चली। इसके अलावा 2003 में तलाश, 2002 में पिता, 2001 में गलियों का बादशाह और 2000 में आई, फिल्म जगत में अपने परफेक्शन के लिए पहचाने जाने वाले आमिर की मेला जिसमें उन्होंने अपने भाई फैज़ल को भी पर्दे पर उतारने की कोशिश की और अनिल कपूर, रजनीकांत की बुलंदी दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम से गिरी। आमिर का परफे़क्शन और अनिल रजनीकांत का इंप्रेशन भी कुछ कमाल नहीं कर सका। इसके पहले 1999 में सिकंदर सड़क का, 1997 में आस्था, 1996 में हिम्मत, जुर्माना, स्मगलर और 1994 में रिलिज़ हुई आंसू बने अंगारे। इस फे़हरिस्त पर अगर नज़र डाली जाए तो एक ख़ास बात सामने आती है कि, पंद्रह साल में कोई ऐसी फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई जो हिट हो सकती थी। यानि जिन फ़िल्मों को फ़्लॉप होना था वो ही फ़्लॉप हुई। या यूं भी कहा जा सकता है कि इन पंद्रह सालों में किसी ने अच्छी फ़िल्म रिलीज़ करने की हिम्मत ही नहीं जुटाई। धीरे-धीरे ये विश्वास अमिट हो गया है कि जनवरी का पहला हफ़्ता यानि फ़्लॉप।
बॉलीवुड के इस अंधविश्वास को देखकर स्कूल में पढ़ाई गई एक कहानी याद आ जाती हैं। कहानी का शीर्षक है - धरती फट गई। कहानी कुछ इस प्रकार है, एक खरगोश आम के पेड़ के नीचे सोया हुआ रहता है तभी उसे धड़ाम से आवाज़ आती है और वो दुम दबाकर भागता है औऱ साथ में चिल्लाता जाता है धरती फट गई, धरती फट गई, उसकी चिल्लाहट सुनकर और जानवर भी उसके पीछे हो लेते हैं और ये भागभभाग बढ़ती जाती है। तभी एक समझदार जानवर (वो कोई भी हो सकता है) जो संख्या में कम हैं इसलिए सुने नहीं जाते हैं यही वजह है कि वो चिल्लाकर सभी जानवरों को रोकता है और भागने की वजह पूछता है। कई जानवर एक स्वर में बोलते हैं धरती फट गई है तुम भी भागो, समझदार जानवर पूछता है कहां फटी और किसने देखा, उंगली उठते उठते खरगोश पर रुक जाती है वो भी दावे के साथ कहता है कि हां मैंने धड़ाम की आवाज़ सुनी जब मैं आम के पेड़ के नीचे सो रहा था। समझदार सभी को उस पेड़ के नीचे जाने के लिए कहता है कोई तैयार नहीं होता अंतत: वो खुद जाता है वहां पता चलता है कि एक बड़ा भारी आम गिरा पड़ा है, जिसकी आवाज़ ने खरगोश के मन में ये विश्वास जगा दिया था कि धरती फट गई है और ये विश्वास कठोर होते होते अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। यही शायद बॉलीवुड के साथ है जहां विश्वास तो कायम नहीं है लेकिन अंधविश्वास फिल्म को रिलीज़ करने और ना करने या कब करने की बड़ी वजह है।
बॉलीवुड में विश्वास नाम की चीज़ नहीं होती है यहां स्क्रिप्ट चोरी होती है, यहां कलाकार,लेखक, निर्देशक सभी विश्वास करते हैं और उनका विश्वास टूटता है। कभी किसी का पैसा रुकता है तो कभी किसी को नहीं मिलता है। लेकिन, इस ना विश्वास करने वाले मनोंरंजन उद्योग में अंधविश्वास भरपूर है। कभी कोई अपने सीरियल का नाम के अक्षर से रखता है तो कभी कोई अपनी फ़िल्म का नामों के अक्षर बढ़ाता है। सितारों के नामों का घालमेल तो आम बात है, इसी के चलते कभी चौराहे पर तोता लेकर बैठने वालों की चल पड़ी है और अब वो सितारों का तोता बैठाते हैं। आंकड़ों के बाज़ीगर ये कहते हैं कि जनवरी के पहले हफ़्ते रिलीज हुई फ़िल्म की नियति फ़्लॉप होना ही है। पिछले पंद्रह सालों के आंकड़ो पर नज़र डालें तो साल 2007 में कुड़ियों का है ज़माना और आई सी यू, दोनों फ़िल्में साल की शुरूआती त्रासदी रही। 2006 में आई जवानी-दीवानी और 15 पार्क एवेन्यू। ये फ़िल्में भी पिट गई। 2005 में तीन मध्यम बजट की फ़िल्म रिलीज़ हुई जिसमें वादा, रोग और यही है ज़िंदगी शामिल थी। रोग में विदेशी चमड़ी का प्रदर्शन हुआ। लेकिन, थियेटर खाली रहे। इसके अलावा वासु भगनानी की वादा और यही हैं ज़िंदगी कब आई और गईं पता नहीं चला। 2004 में रिलीज़ हुई इश्क है तुमसे, जिसने इन अंधविश्वासों को तोड़ा और फ़िल्म अच्छी चली। इसके अलावा 2003 में तलाश, 2002 में पिता, 2001 में गलियों का बादशाह और 2000 में आई, फिल्म जगत में अपने परफेक्शन के लिए पहचाने जाने वाले आमिर की मेला जिसमें उन्होंने अपने भाई फैज़ल को भी पर्दे पर उतारने की कोशिश की और अनिल कपूर, रजनीकांत की बुलंदी दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम से गिरी। आमिर का परफे़क्शन और अनिल रजनीकांत का इंप्रेशन भी कुछ कमाल नहीं कर सका। इसके पहले 1999 में सिकंदर सड़क का, 1997 में आस्था, 1996 में हिम्मत, जुर्माना, स्मगलर और 1994 में रिलिज़ हुई आंसू बने अंगारे। इस फे़हरिस्त पर अगर नज़र डाली जाए तो एक ख़ास बात सामने आती है कि, पंद्रह साल में कोई ऐसी फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई जो हिट हो सकती थी। यानि जिन फ़िल्मों को फ़्लॉप होना था वो ही फ़्लॉप हुई। या यूं भी कहा जा सकता है कि इन पंद्रह सालों में किसी ने अच्छी फ़िल्म रिलीज़ करने की हिम्मत ही नहीं जुटाई। धीरे-धीरे ये विश्वास अमिट हो गया है कि जनवरी का पहला हफ़्ता यानि फ़्लॉप।
बॉलीवुड के इस अंधविश्वास को देखकर स्कूल में पढ़ाई गई एक कहानी याद आ जाती हैं। कहानी का शीर्षक है - धरती फट गई। कहानी कुछ इस प्रकार है, एक खरगोश आम के पेड़ के नीचे सोया हुआ रहता है तभी उसे धड़ाम से आवाज़ आती है और वो दुम दबाकर भागता है औऱ साथ में चिल्लाता जाता है धरती फट गई, धरती फट गई, उसकी चिल्लाहट सुनकर और जानवर भी उसके पीछे हो लेते हैं और ये भागभभाग बढ़ती जाती है। तभी एक समझदार जानवर (वो कोई भी हो सकता है) जो संख्या में कम हैं इसलिए सुने नहीं जाते हैं यही वजह है कि वो चिल्लाकर सभी जानवरों को रोकता है और भागने की वजह पूछता है। कई जानवर एक स्वर में बोलते हैं धरती फट गई है तुम भी भागो, समझदार जानवर पूछता है कहां फटी और किसने देखा, उंगली उठते उठते खरगोश पर रुक जाती है वो भी दावे के साथ कहता है कि हां मैंने धड़ाम की आवाज़ सुनी जब मैं आम के पेड़ के नीचे सो रहा था। समझदार सभी को उस पेड़ के नीचे जाने के लिए कहता है कोई तैयार नहीं होता अंतत: वो खुद जाता है वहां पता चलता है कि एक बड़ा भारी आम गिरा पड़ा है, जिसकी आवाज़ ने खरगोश के मन में ये विश्वास जगा दिया था कि धरती फट गई है और ये विश्वास कठोर होते होते अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। यही शायद बॉलीवुड के साथ है जहां विश्वास तो कायम नहीं है लेकिन अंधविश्वास फिल्म को रिलीज़ करने और ना करने या कब करने की बड़ी वजह है।
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