फ़िल्म समीक्षा - रब ने बना दी जोड़ी
पंकज रामेन्दू
शाहरुख ख़ान ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वो चाहे कुछ भी बन जाये वो रहेंगे शाहरुख ख़ान ही। शाहरुख ख़ान की फिल्म को देखकर अब ये कहा जा सकता है कि शाहरुख ख़ान भले ही इंडस्ट्री के बादशाह हों लेकिन वो कभी किरदार में ढल नहीं सके फिर चाहे वो डॉन बने ये सुरिंदर।
आदित्य चोपड़ा और शाहरुख ख़ान की जो़ड़ी आठ साल बाद रुपहले पर्दे पर नज़र आई, फिल्म को लेकर दर्शकों में भी काफी उत्साह था, फिल्म के आने वाले तीन दिनों यानि जिन्हें महानगरों में वीकएंड कहा जाता है, ऐसे दो दिन जिस दिन लोग उत्साह मनाना चाहते हैं। उसी वीकएंड के लिए थियेटर लगभग बुक हैं। कुल मिलाकर फिल्म हिट है। वैसे भी मल्टीप्लेक्सेस के आ जाने के बाद फिल्मों ने फ्लॉप होना छोड़ दिया है। और 20-20 के इस युग में हमारे पास समय की काफी कमी है इसलिए तीन दिनों के आंकड़े ही फिल्म की गुणवत्ता सिद्ध करते हैं।
प्रमोशन के इस दौर में चीजो़ के लिए पैदा की गई जिज्ञासा ही उसे उम्दा बनाती हैं जितनी जिज्ञासा उतनी बिक्री, फिर नेहा धूपिया तो एक बार कह भी चुकी हैं कि भारत में सिर्फ सेक्स और शाहरुख बिकता है, तो शाहरुख ऐसे हो या वैसे हो वो बिकेंगे।
फिल्म रिलीज होने के पहले से ही इसे एक आम इंसान की कहानी बताया जा रहा है, तो कहानी शुरू होती है सुरिंदर साहनी नाम के एक आम इंसान से जिसकी परस्थितिवश तानी (अनुष्का शर्मा) से शादी हो जाती है जो उससे उम्र में काफी कम है, तानी किसी दूसरे लड़के को चाहती है जिसकी मौत किसी एक्सीडेंट में हो गई है और सुरिंदर उन्हें अपना लेते हैं। सुरिंदर उन्हें दिल से चाहता है लेकिन इज़हार-ए-मोहब्बत करना उसके बस में नहीं है। सुरिंदर के सगा दोस्त है बॉबी (विनय पाठक) सुरिंदर जिसके साथ अपनी पूरी जिंदगी शेयर करता है। बॉबी एक हेयर स्टाइलिस्ट यानि सैलून चलाता है ज़ाहिर सी बात है बॉबी सुरिंदर को राज कपूर में बदलता है वो उसे स्टाइलिश फंकी लुक देता है यानि एक और शाहरुख दर्शकों के सामने आता है। सुरिंदर के राज में एकदम बदलाव को फिल्म का सबसे बड़ा जर्क कह सकते हैं। फिल्म इसी तरह आगे बढ़ती है, फिल्म में कही ऐसा कुछ नहीं लगता जो नया है वही पुराने मसाले की यश ना जाने कितनी बार छौंक लगाएंगे।
फिल्म का स्क्रीन प्ले और डायलॉग कहीं भी प्रभावित नहीं कर पाते हैं, हालांकि कुछ सीन भावनात्मक तौर पर अच्छे बन पड़े हैं, ख़ासकर फिल्म के आखिर में सुरिंदर और तानी के फोटोग्राफ के साथ शाहरुख का वायस ओवर काफी बेहतर है, अनुष्का शर्मा पहली फिल्म के हिसाब से कांफिडेंट नज़र आती हैं, विनय पाठक ने एक बार फिर बता दिया कि वो उम्दा कलाकार है और उनसे कुछ भी करवा लीजिये वो बेहतर ही हैं। फिल्म में सबसे ज़्यादा निराश इसके निर्देशन और शाहरुख ने किया, ख़ासकर सुरिंदर बने शाहरुख कहीं भी सहज नहीं लगते हैं, हर सीन एक ड्रामा लगता है. कहीं कहीं तो शाहरुख ईश्वर फिल्म के अनिल कपूर बनने की कोशिश करते नज़र आए। फिल्म को देखकर ये समझ नहीं आता कि क्या सीधा-सादा होने का मतलब घोंचू होने से है, हर जगह शाहरुख ऐसा ही कुछ बनते दिखते हैं वो भी वो अच्छी तरह से नहीं निभा सके।
कुल मिलाकर ये फिल्म कुछ अच्छे सीन का समूह है जिसे एक औसत फिल्म की श्रेणी में रखा जा सकता है। मैं इस फिल्म ढाई स्टार देता हूं।
और शाहरुख ख़ान को एक सलाह, हाल ही में शाहरुख ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो खुद को राज के रूप में दिखाते दिखाते थक गये हैं अब वो खुद को सुरिंदर के रूप में दिखाना चाहते हैं तो उनके लिए येही सलाह है कि वो ऐसा प्रयास भूल कर भी ना करें क्योंकि ये उनके करियर के लिए अच्छा निर्णय नहीं होगा।
5 comments:
मुझे तो कहीं नहीं लगा कि शाहरुख़ घोंचूँ बनें है वे सीधे-सादे पढाकू युवक थे और फिर तुरंत ही नौकरी करने लग गये फिर जब उन्हें प्यार हुआ तो एक सरल व्यक्तिगत सोच रख्नने वाले प्रेमी का किरदार में उतर जाते हैं और अनुष्का का कमेंट मैं तुमसे प्यार नहीं कर पाऊँगी उन्हें राज नाम तो सुना होगा बनने पर मजबूर कर देता है, मैं तो कहूँगा उन्होंने फ़िल्म में आमोल पालेकर (गोलमाल की भूमिका) जैसी सहजता दिखायी है। एक तुम्हारे 2.5 या किसी के 2.5 कहने/देने से क्या होता है जो है सो है मेरे तरफ़ से 3.5 हैं।
मैंने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी है...न जाने क्यों उत्सुकता नहीं हुई। पिछले पाँच दिनों में साउंड ऑफ म्यूजिक तीन बार देख चुकी हूँ...अब भी शायद दो-चार बार और देख लूँ। आप सही कह रहे हो शाहरुख...सिर्फ शाहरूख लगते हैं चाहे वह अशोका मे ग्रेट किंग अशोक बने या फिर किसी फिल्म में राज के किरदार में हो। हाँ चक दे इंडिया में वे जरूर मुझे कबीर खान की भूमिका को आत्मसात करते नजर आए थे।
दिप्ती आप सही कह रहे हो। शाहरूख अकसर अपने शाहरूखपने से मुक्त नहीं हो पाते। मैंने अभी तक फिल्म देखी नहीं है। अभी तो साउंड ऑफ म्यूजिक के जादू से मुक्त नहीं हो पा रही। पाँच दिन में 3 बार देख चुकी हूँ। यह फिल्म मुझे आकर्षित नहीं कर पाई...सच कहूँ तो मुझे अभी तक चक दे इंडिया ही ऐसी फिल्म लगी है जिसमें शाहरूख अपने भावों से मुक्त हो कबीर खान को पूरी तरह से आत्मसात कर पाएँ हैं...उस फिल्म में शाहरूख कहीं से भी मुझे राज या राहुल नहीं लगे। जैसा वे अकसर लगते हैं।
फिल्म के बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद। बाकी की बातें तो फिल्म देखने के बाद ही मालूम होगी।
श्रुति आपके कंमेंट के लिए धन्यवाद। लेकिन, ये राइट अप मैंने नहीं पंकज रामेन्दु ने लिखा है।
दीप्ति
Post a Comment