दीप्ति दुबे
ब्लॉगिंग को आप कितनी गंभीरता से लेते हैं। या फिर ये ब्लॉग जगत आपके लिए क्या मायने रखता हैं। इसे जानने के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि बाहरी दुनिया या फिर वो लोग जो इस दुनिया के दर्शक है इसे क्या मानते है। हो सकता है कि जब आप अपने ब्लॉग पर कुछ लिखे तो ये सोचकर लिखे कि वो बहुत महत्तवपूर्ण है। लेकिन, हरेक ऐसा नहीं मानता हैं। कल सौभाग्य से मुझे साहित्य अकादमी में चल रही एक गोष्ठी को सुनने का मौक़ा मिला। ये गोष्ठी थी ई-लेंग्वेजेस पर। यानि की ई-भाषाओं पर। लेकिन, बात घूमते हुए आ गई हिन्दी ब्लॉगिंग पर। वक्ताओं ने इसकी जमकर खींचाई की (जैसा कि मुझे लगा)। ब्लॉगिंग को उन्होंने एक ऐसा मंच माना जोकि आपसी रंजिश को मिटाने के लिए खड़ा किया गया है। उनके मुताबिक ब्लॉग के ज़रिए यहां आपसी लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं। हालांकि उन्होंने इसके साथ-साथ इसे अभिव्यक्ति का एक बेहतर माध्यम भी कहा लेकिन... चर्चा के दौरान ब्लॉग में लिखी जानेवाली भाषा की भी बात हुई। कि किस तरह ब्लॉग्स में अभद्र भाषा का प्रयोग हो रहा है। या फिर किस तरह से यहाँ भाषा के माध्यम से लोगों की कलई खोली जा रही है। साथ ही ब्लॉगर्स की रचनाओं को भी लपेटे में लिया गया। प्रेम कविताओं को छंदों और रसों के ज़रिए समझने की कोशिशें हुई। जिसका अंत यही था कि ये कुछ अलग दुनिया है। जिसका मज़ाक आसानी से उड़ाया जा सकता है और उड़ाया भी गया। ब्लॉग में लिखें जानेवाले उपन्यासों की भी खींचाई हुई। चर्चा हुई कि उन्हें भी साहित्य सम्मान दिए जाने चाहिए। गोष्ठी के दौरान थोड़ा महरम भी लगाया गया। कहा गया कि ब्लॉग्स का सूक्ष्मता से परिक्षण हो। और ये देखा जाएं कि कौन से ऐसे ब्लॉग्स है जोकि लंबी रेस के घोड़े हैं। शायद उनसे कुछ ढंग की चीज़ निकल आए। लेकिन, जितना मैं एक ब्लॉग होते हुए समझ पाई वो ये था कि, ब्लॉग्स को शायद हिन्दी भाषा में लिखने पढ़नेवाला एक बड़ा तबका पचा नहीं पा रहा हैं। जो कलम से लिखते हैं, उन्हें इस ई-लेखनी से कुछ ज़्यादा प्यार नहीं। ये वक्ता की बातों से कम, वहाँ बैठे हिन्दी के लिखने और पढ़नेवालों की हंसी से ज़्यादा मापा जा सकता था। अंत में एक बात जो एक ब्लॉग के रूप में मुझे सही लगी वो ये कि आज तक हिन्दी की ये ई-लेखनी ई-भाषा नहीं बन पाई है। इसमें न हाइपर लिंक हैं। न जनरिक टेक्ट। ये कुछ ऐसा ही है कि पेपर की जगह कम्प्यूटर पर लिख दिया। ये सही भी है, हिन्दी की इस लेखनी न तो शब्द सीमा है और न ही ये इन्टरएक्टिव बन पाई है। उस गोष्ठी में वक्ताओं और श्रोताओं की इस विचार धारा के बाद अब लगता है मैं कि पहले क्या करूँ। हिन्दी का व्याकरण सीखूँ या फिर कम्प्यूटर की नई तक़नीकें...
10 comments:
वो लोग इतने गौर से ब्लॉग्स पढ़ते है.. जानकार खुशी हुई.. पर हम उन्हे इतने इंटेरेस्ट से नही पढ़ते..
उन्हें मजाक उड़ा लेने दीजिये। अपने पच्चीस वर्षों के लेखन से मैंने यह अनुभव किया है कि ब्लाग लेखन मेें वही लेखक चलेंगे जो गागर में सागर भर पायेंगे। ब्लाग से बाहर जो लिखा जा रहा है उसका हाल यह है कि अधिकतर बड़े प्रकाशन अब पुराने साहित्यकारों को छाप रहे हैं। इसका आशय यह है कि नये साहित्यकार अपने संबंधों के आधार पर प्रकाशित जरूर हो जाते हैं पर उनमें यह क्षमता नहीं है। आपका यह पाठ गागर में सागर का प्रतीक है। अन्य ब्लागर भी मेहनत कर रहे हैं यह हर किसी के बूते का नहीं है जो मजाक उड़ा रहे हैं उनके बूते का तो बिल्कूल नहीं।
दीपक भारतदीप
इस बात पर यकीन रखिए कि हँसी उड़ाने वाले, चाहे वो कोई भी हों, कहीं के भी हों, उनके ज्ञान में कुछ कमी अवश्य होती है. ब्लॉग जैसे सशक्त माध्यम का प्रयोग जन जन तक अपनी रचनाएं पहुँचाने में वे लोग क्यों हिचकिचाते हैं? जबकि रचनाकार का पहला ध्येय ही यही होता है कि वो जो लिखता है, उसे सब पढ़ें.
और, ये देखिए, मैं उनके मंतव्यों की हँसी उड़ा रहा हूं :)
साहित्य अकादमी में चल रही ई-लेंग्वेजेस पर हुई इस गोष्ठी में हुई हिन्दी की खिंचाई को जानकर बहुत ताज्जुब हुआ। खिंचाई करने से अच्छा है , विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ और हिन्दी साहित्य के दिग्गज भी हिन्दी ब्लागिंग से जुडकर इसे मजबूती दें।
bahut sahi likha aapne main blogger par naya hun lekin technical prob. face kar raha hun.
yogesg swapn
असल में होता यह है कि जब कोई हमें हमारा दोष दिखाता है तो सबसे पहली प्रतिक्रिया हमारे मन में उसकीबात की ऐसी-तैसी करने की ही होती है। किन्तु उस निन्दा का कहीं न कहीं, कोई न कोई आधार होता ही है। भले ही मात्रा भिन्न हो।
इन अर्थों में हिन्दी ब्लॊगजगत् अपनी निरंकुश अभिव्यक्ति के लिए स्वयं उत्तरदायी है। उसमें भाषिक विमर्श,साहित्यिकता,.. या किसी भी भाषिक कौशल (पारिभाषिक अर्थ में) के लिए कितना समर्पण अथवा प्रतिबद्धता है, यह कोई दर्पण दिखाने की बात नहीं। हास्यास्पद होने न होने का अनुपात स्वयं हमारी कार्यप्रणाली व कार्य का स्तर निर्धारित करते हैं।
इन अर्थों में मुझे यह कहने में गुरेज नहीं है कि गुणवत्ता व अधिसंख्य(क्वालिटी और क्वांटिटी) का अंतर व भारी भेद इस अनुपात के मापदण्ड तय करता है।
ऐसे में यह तो आप को स्वयं ही तय करना है कि किसे क्या सीखना चाहिए। पर मेरी विचार से साध्य है साहित्य की गुणवत्ता,... और माध्यम-भर हैं ये ई-संसाधन। क्यों न साध्य के लिए साधन का सही इस्तेमाल हो? सही इस्तेमाल के लिए साधन भी पूरा जानना होगा और लक्ष्य व साध्य के प्रति समर्पण व कार्य की साधना के प्रति भी समर्पित होना ही होगा।
यह कीचड़-उछाल संस्कृति क्या हमारे स्वनामधन्य साहित्यकारों की विरासत नहीं है ?
ब्लागिंग साहित्य को पदच्युत नहीं कर सकती,
पर ई-लेखन निश्चित ही भविष्य का साहित्यलेखन है !
काफ़ी दिन बाद आपके यहां आना हुआ! आपने अच्छा किया तो चर्चा का जिक्र यहां किया।
जैसा कि आपने लिखा जिसका अंत यही था कि ये कुछ अलग दुनिया है। जिसका मज़ाक आसानी से उड़ाया जा सकता है और उड़ाया भी गया।
मेरा यह मानना है कि ब्लाग जगत अभिव्यक्ति का वह मंच है जहां अनन्त संभावनायें हैं। एकदम बचकानी रचनाओं से काम भर की बेहतरीन रचनाओं तक इसकी परास है। अपने सीमित अनुभव से मैं कह सकता हूं कि आज की तारीख में हिंदी साहित्य समाज में कोई रचनाकार ऐसा नहीं है जो शुऐब की खुदा सीरीज जैसी रचनायें लिख रहा हो।
यह विडम्बना है कि अपना हिंदी समाज किसी भी नयी चीज को सूंघ के खारिज कर देने की काबिलियत रखता है। इसी काबिलियत के चलते तमाम स्वयंभू लोग ब्लागजगत का मूल्यांकन करते हैं। इस माध्यम की अभी तो शुरुआत है। अभी इसके कुछ भी तो मापदंड तय नहीं हुये हैं। समय बतायेगा इसकी भी कहानी!
किसी भी माध्यम का रूप कैसा बनता है यह उससे जुड़े लोग तय करते हैं। इंटरनेट के चलते ब्लाग की तात्कालिकता इसे क्षणभंगुर और कालजयी दोनों बनाती है। छापा माध्यम वालों को अभी इसकी संभावनाओं का अंदाज ही नहीं है। न वे इसे समझना चाहते हैं क्योंकि वे इसे खुली आंखों से देख ही नहीं रहे। सूंघकर नकार रहें हैं।
बहुत दिन बाद आपके ब्लाग पर आना हुआ।
जैसा आपने लिखा जिसका अंत यही था कि ये कुछ अलग दुनिया है। जिसका मज़ाक आसानी से उड़ाया जा सकता है और उड़ाया भी गया।
मेरा यह मानना है कि ब्लाग जगत अभिव्यक्ति का वह मंच है जहां अनन्त संभावनायें हैं। एकदम बचकानी रचनाओं से काम भर की बेहतरीन रचनाओं तक इसकी परास है। अपने सीमित अनुभव से मैं कह सकता हूं कि आज की तारीख में हिंदी साहित्य समाज में कोई रचनाकार ऐसा नहीं है जो शुऐब की खुदा सीरीज जैसी रचनायें लिख रहा हो।
यह विडम्बना है कि अपना हिंदी समाज किसी भी नयी चीज को सूंघ के खारिज कर देने की काबिलियत रखता है। इसी काबिलियत के चलते तमाम स्वयंभू लोग ब्लागजगत का मूल्यांकन करते हैं। इस माध्यम की अभी तो शुरुआत है। अभी इसके कुछ भी तो मापदंड तय नहीं हुये हैं। समय बतायेगा इसकी भी कहानी!
किसी भी माध्यम का रूप कैसा बनता है यह उससे जुड़े लोग तय करते हैं। इंटरनेट के चलते ब्लाग की तात्कालिकता इसे क्षणभंगुर और कालजयी दोनों बनाती है। छापा माध्यम वालों को अभी इसकी संभावनाओं का अंदाज ही नहीं है। न वे इसे समझना चाहते हैं क्योंकि वे इसे खुली आंखों से देख ही नहीं रहे। सूंघकर नकार रहें हैं।
समझ समझ की बात है भइया!!!!!
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