Wednesday, December 3, 2008
सामाजिक तानेबाने के हिंसक लोग
मेरे मुताबिक़ समाज का अर्थ होता है वह जगह जहां इंसान मिलकर रहे। जहां आप जो भी करें उसके बारे में लोगों की एक राय हो। मैं कभी किसी दबाव या फिर किसी भी ऐसे नियम के विरूद्ध रही हूँ जोकि इंसान पर थोपा जाता हैं। लेकिन, फिर भी अगर कोई भी इंसान ये दावा करता है कि वो सामाजिक है तो उसे हरेक तरह की ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ अपने कामों और अपनी सोच की समीक्षा के लिए भी तैयार रहना चाहिए। कम से कम मेरी सोच ऐसी ही है यही वजह है कि मैं हमेशा अपने हर काम और अपनी हर सोच की हुई सकारात्मक और नकारात्मक आलोचना के लिए तैयार रहती हूँ। लेकिन, मेरी ये सोच कुछ लोगों को अखर सी गई। दरअसल सामाजिक तानेबाने से जुड़ी एक साइट पर एक सज्जन की सोच पर मैंने अपनी राय रख दी। बस मेरा राय रखना था और वो सज्जन बिफर पड़े। मुझे खरी-खरी सुनाना शुरु कर दी। ये वो, ऐसा वैसा और पता नहीं क्या-क्या। मैं स्वभाव से बहुत रूखी हूं। सोचा सज्जन की इस दुर्जन हरकत पर मैं कुछ धागे उधेड़ दूँ लेकिन, फिर लगाकि मेरा ऐसा करने से उन्हें न तो अपनी गलती का अहसास होगा और न ही वो कुछ नया सीख पाएंगे। हाँ मुझ पर कुछ शब्दों के अनर्गल बाण ज़रूर बरसा देंगे। सो, मैंने उन्हें धन्यवाद ज्ञापित कर दिया और एक बात अपनी गांठ बांध ली। इंसान सामाजिक सरोकार से जुड़े मंच पर हो, साथ में काम करता हो, आपका रिश्तेदार हो या आपका दुश्मन वो सिर्फ़ वही सुनेगा जो उसे पसंद आएगा यानी कि तारीफ़े और अगर आप वो नहीं कर सकते हैं। तो सामाजिक होते हुए ऐसे सामाजिक प्राणियों से दूर रहे। नहीं तो क्या बात कही है... वाह... एकदम सच.... कहना सीख लिजिए।
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अलग सोच...
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