Thursday, October 16, 2008
फ़िल्मों के ज़रिए समाज में बदलाव की कोशिश...
उड़ीसा के एक छोटे से गांव में रहनेवाली एक लड़की जो बचपन से ही अलग सोच के साथ रही है, वो ईश्वर को नहीं मानती है, वो पढ़ाई के इन पारंपरिक तरीक़ों से अलग कुछ चाहती है। और जब वो बड़ी होकर ये करने की कोशिश में लगती है, तो उसे नकार दिया जाता है। ये कहानी है एक उड़ीया फ़िल्म की। एक कैमरा, एक साउंड रिकॉडिस्ट, चार कलाकार जो ख़ुद ही अपने कपड़े तय करते हैं और खुद ही मेकअप। संवाद भी वही तय किए जाते है और एडिट भी किसी छोटे से कमरे में बैठे हुए हो जाती है। लेकिन, ये किस्सा किसी एक फ़िल्म का नहीं मुंबई में रह रहे बाहरी लोगों की फ़िल्म भी कुछ ऐसे ही बनी है, देवियों को रेखांकित करती हुई एक हल्की फुल्की कॉमेडी फ़िल्म भी कुछ ऐसे ही बनी है और गुजरात दंगों के बाद का हाल बताती फ़िल्म और और और कई ऐसी फ़िल्में। ये सभी फ़िल्में बनी भी हैं ये मुझे आज मालूम चला। मैजिक लेंटर्न फ़ाउन्डेशन के ज़रिए। ये एक ऐसी संस्था है जो फ़िल्में बनाती है। साथ ही दूसरे फ़िल्ममेकर्स की फ़िल्मों का वितरण भी करती है। ये संस्था छोटे बजट के फ़िल्ममेकर्स से उनकी फ़िल्में लेकर लोगों तक पहुंचाने का काम करती हैं। संस्था समाज और हम लोगों से जुड़े हर मुद्दे पर बनी फ़िल्म को आगे बढ़ाने का काम करती है। वो मुद्दा सांप्रदायिक हो या फिर महिलाओं से जुड़ा हो या फिर समलैंगिकों से जुड़ा या फिर ग्लोबल वार्मिंग के जुड़ा। संस्था का काम है ऐसे फ़िल्ममेकर्स से फ़िल्में लेकर उन्हें वितरण के ज़रिए लोगों तक पहुंचाना। ये संस्था इस काम को आगे बढ़ाने के लिए फ़िल्म फ़ेस्टीवल का आयोजन भी करती है। मैजिक लेंटर्न फ़ाउन्डेशन इसके लिए कई एनजीओ और शैक्षिक संस्थानों को ये फ़िल्में दिखाती है। इतना ही नहीं अगर आप ये फ़िल्में व्यक्तिगत रूप से देखना चाहते हैं तो फ़ाउन्डेशन के दिल्ली ऑफ़िस में जाकर देख भी सकते हैं। यहां संस्था ने एक छोटा-सा स्क्रीनिंग रूम की व्यवस्था कर रखी है। बस करना इतना होता है कि पहले फ़ोन करके आप उन्हें अपने की जानकारी दे दे। यहां न सिर्फ़ देसी बल्कि विदेशी फ़िल्मों को भी आप देख सकते हैं। लेकिन, ये सभी फ़िल्में वो होती हैं. जो समाज से जुड़ी हुई हो और जिसका व्यवसायिक फ़ायदों से कुछ लेना-देना न हो। इस संस्था का मक़सद है लोगों को मीडिया का उपयोग करना सीखाना। लोगों को समझाना की कैसे मीडिया के ज़रिए समाज में रूढ़ियों को ख़त्म करना, समाज में बदलाव की शुरुआत करना या इस काम को कर रहे लोगों को एक मंच प्रदान करना। फ़िल्मों के शौक़िनों के लिए ये एक बेहतरीन ज़रिया बन सकता है, जिससे की वो अलग-अलग भाषा, विषय, जगह और तरीक़ों की फिल्में देख और खरीद सकते हैं।
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नज़रिया
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3 comments:
badhiya aalekh aur achchi jankari
verma
bahut badhiyaa lekh, padh kar aashcyarya hua aur sukhad bhee lagaa. achha hai ki aap logon ke maadhyam se ye jaankaariyaan ham tak pahunch rahee hain.
are kya baat hai, jawaab nahi hai,aise hi pryaas jari rahe, diwali ki hardik shubhkamnaye
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