Thursday, October 9, 2008

घर की याद...

पिछले चार दिनों से लगातार काली बाड़ी से सुबह-सुबह ढोल की गूंज और शाम को बंगाली गानों को सुन रही थी। सुनकर बचपन भी याद आ रहा था, कि कैसे हमारी कॉलोनी मे भी गणपति स्थापना या देवी स्थापना के वक़्त रौनक रहती थी। तक़रीबन चार साल की थी तब का जो थोड़ा बहुत याद है वो था कि एक बड़े से पर्दे पर फ़िल्म दिखाई जाती थी। एक तरफ से नीला दिखाई देता था, एक तरफ से लाल। दोपहर की पाली का स्कूल रहता था मेरा। स्कूल से आते ही खेलने भाग जाती थी। मम्मी कहती भी थी कि - थोड़ा-सा सो जा बेटा, फिर रात को जाग नहीं पाएगी। लेकिन, मैं खेलने में मस्त रहती थी। और रात को जब फ़िल्म देखने का वक़्त आता था तब तक या तो मैं सो जाती थी या फिर छत पर जहां से फ़िल्म देखना होती थी वहां मम्मी की गोद में थोड़ी देर में सो जाती थी। फिर हमेशा की तरह सुबह उठकर रोना कि मैंने फ़िल्म नहीं देखी। इस सब के बीच जो सबसे ज़्यादा याद है वो है पापा की गोद। पापा कभी फ़िल्म नहीं देखते थे। वो इतने शोर में भी आराम से अपने कुर्सी टेबल पर बैठे लिखते रहते थे। पापा मुझे वही अपने पास सोफे पर सुला लिया करते थे। जब भी मेरी नींद खुलती और मैं रोना शुरु करती कि फ़िल्म देखना है। पापा झट से मुझे गोद में लिए बाहर आ जाते और पर्दे पर चल रही फ़िल्म दिखाकर कहते देख लो बेटा। मैं शायद दो ही मिनिट देख पाती थी और सो जाती थी। फिर पापा मुझे सोफे पर सुलाकर अपना लिखना शुरु कर देते। ऐसा दो-तीन बार होता। लेकिन, एक भी बार पापा को गुस्सा होना या डांट मुझे याद नहीं। इन्हीं सब यादों के बीच पिछले चार दिनों में मैंने जितना घर को मिस किया शायद ही कभी किया होगा। सभी को दशहरे की शुभकामनाएं...

2 comments:

mehek said...

festival min shayad ghar ki aur jyada yaad aati hai,sare rishtedar bhimilte usi waqt hai.

Anonymous said...

kya karen papa hote he aise hain