नहीं मालूम ये रचना किसने लिखी है। आज सुबह बस में आते वक़्त पैरों के नीचे एक कागज़ का पुर्ज़ा मिला। उठाया था ये सोचकर कि कागज़ पर पैर नहीं रखते है। देखा तो किसी ने लाल स्याही ये कविता उस पर लिख रखी थी। अक्षर इतने सुन्दर थे कि एक पल को लगा कि लिखनेवाला भी सुन्दर होगा। पता नहीं किसने लिखी है ये कविता। बस दिल को छू गई सो पोस्ट कर रही हूँ - दीप्ति।
कभी कुछ मन से करना...
कभी कुछ बेमन करना...
लेकिन, हर बार यही सुनना कि किया क्या है तुमने...
ख़ुद को ख़त्म करके, दुनिया को बसाना...
ख़ुद को कम करके संसार को बढ़ाना...
और फिर वही सुनना कि किया क्या है तुमने...
"मैं" कौन है भूल गई हूँ...
बस जी रही हूँ उसके लिए जो कहने को तैयार है...
कि किया क्या है तुमने...
पीस जाना...
थक जाना...
टूट जाना...
उसके लिए जो कहने को बेताब है...
कि किया क्या है तुमने...
उसकी आंखें कुछ यूँ देखती हैं...
कि लगे कुछ नहीं किया है "मैं"ने...
4 comments:
achcha likha hai aapney.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
im here because of few cents for you. just dropping by.
bahut badhiya rachana. prastut karne ke liye dhanyawad.
ख़ुद को ख़त्म करके, दुनिया को बसाना...
ख़ुद को कम करके संसार को बढ़ाना...
और फिर वही सुनना कि किया क्या है तुमने...
behatareen panktiyan...
verma
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