गरमी का मौसम, खाली सड़क, हरियाली और शांति के बीच एक कमरा, और कुछ बेहतरीन दोस्त... एक बैचलर को इससे ज़्यादा शायद ही कुछ चाहिए हो... महानगरों में रहना कभी आसान नहीं रहा होगा। लेकिन, उसे आसान कैसे बनाया जा सकता है ये मैंने पिछले दो दिनों में जाना... ज़रिया बनीं दो फ़िल्में "छोटी-सी बात" और "चश्मे बद्दूर"। इन दोनों फ़िल्मों के ज़रिए मैंने झांका तीस साल पुराने महानगरों में, तीस साल पुराने बैचलर्स के कमरों में और मैंने देखा कि मैं कैसे होती तीस साल पहले...
वैसे तो वीक एंड कल्चर विदेशों की देन है लेकिन, भारतीयों ने इसे खुले मन से अपना लिया है। इस बार मैंने भी ठाना था कि मैं अपना वीक एंड अपने मुताबिक़ बिताऊंगी। किया भी कुछ ऐसा ही दो दिन पूरी तरह से किताबों और फ़िल्मों के बीच बिता दिए। उधार पर लाई गई किताब "वूमन राइटर इन इंडिया" इतनी पसंद आई कि अगली किताब खरीदी की सूची में वो शामिल हो गई। और दूसरा काम किया फ़िल्में देखने का... फ़िल्मों की मेरी पंसद हमेशा से ही ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, कुंदन शाह, रजित कपूर और सई परांजपे जैसे फ़िल्मकारों के आस-पास ही घूमती रही है। सो मैंने छोटी-सी बात और चश्मे बद्दूर को फ़िल्मों को चुना।
पहले बात छोटी-सी बात की। एक आम आदमी को ख़ास तरह से दर्शाती हुई ये फ़िल्म बासु चटर्जी ने निर्देशित की है। इसमें जान डाली है अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, अशोक कुमार और असरानी जैसे कलाकारों ने।
कहानी कुछ यूँ है कि, अरूण प्रदीप महानगर में रहनेवाला एक छोटे शहर का लड़का। मुबंई में दोस्तों के साथ रहता है, नौकरी करता है, शांत और मेहनती लड़का है, साथ ही एक लड़की से प्यार भी करता है। रोज़ाना उसका पीछा करता है, बस में उसके पास बैठने की नाकाम कोशिशें करता है, ऑफ़िस की लिफ़्ट तक पीछे रहता है, अफ़सोस कभी साथ खड़ा नहीं हो पाता है, उसके सपने देखता है। लेकिन, उसका नाम तक नहीं जानता है। ये तक नहीं जानता है कि वो शादीशुदा है या नहीं। दूसरी ओर है प्रभा शहर में अकेले रहने वाली लड़की। एक आत्मनिर्भर और सही गलत में अंतर जानने वाली लड़की। जो जानती है कि एक लड़का रोज़ाना उसका पीछा करता है। इनके बीच है एक और लड़का जोकि लगता है कि विलन होगा लेकिन, वो भी इन्हीं की तरह एक बेहद सामान्य और सच्चा इंसान निकलता है। बस अंतर इतना कि वो इस ढ़ेठी दुनिया के चाल चलन अपनाने की नाकाम कोशिशें करता रहता है। फ़िल्म को देखते हुए लगता है कि अरे ये तो उसकी तरह है, और ये तो वो है, और ये तो... ये तो... मैं हूँ। इस फ़िल्म के ज़रिए पता चलता है कि सरल बातों, सरल घटनाओं और सरल किरदारों के ज़रिए कैसे बात कही जाती है। कैसे फ़िल्म का हीरो फ़िल्मी पर्दे पर चल रहे गाने को देखकर ख़ुद को उसकी जगह सोचने लगता है। लेकिन, मज़ा तब आता है जब वो अपनी प्रेमिका को हीरोइन की जगह तो देख लेता है लेकिन, खु़द को हीरो की जगह फ़िट करना भूल जाता है। और अपनी प्रेमिका को फ़िल्मी हीरो की बाहों में देखकर कुनमुना जाता है। फ़िल्म में अशोक कुमार को एक ऐसे टीचर के रूप मे दिखाया है जो कमज़ोरों को आज की दुनिया में बिना ख़ुद को खोए जीना सिखाते हैं। फ़िल्म का हर एक क़िरदार, हर एक किस्सा मुझे अपने ही आस-पास का लगा... फ़िल्म 30 साल पुरानी है। लेकिन, वो क़िरदार, वो घटनाएं सभी आज भी उतने ही सटीक है।
कुछ ऐसी है - चश्मे बद्दूर। सई परांजपे के निर्देशन में बनी ये एक शानदार फ़िल्म है। साथ ही फ़ारूख शेख, दीप्ति नवल और सईद ज़ाफ़री, राकेश बेदी और लीला मिश्रा जैसे कलाकारों ने छोटे-छोटे किरदार को जानदार बना दिया। छोटी-सी बात की ही तरह ये फ़िल्म भी महानगरों में अकेले रह रहे छोटे शहरों से आए युवाओं को रेखाकिंत करती है।
अंतर बस इतना ही कि इस फ़िल्म के क़िरदार सरल तो है लेकिन साथ ही नटखट भी है। बैचलर लड़कों का कमरा लड़कियों के पोस्टर्स से अटा पड़ा है, हर जगह सिगरेट बट और कमरे में धुंआ। लड़की को देखते ही बिना सोचे उसके पीछे हो लेना, पनवाड़ी की दुकान का उधार, लड़का और लड़की का बागों में मिलना, लड़ना-झगड़ना...
ये सब देखकर लगता है कि क्या बदला है... कुछ भी तो नहीं... सबकुछ तो वैसा ही है... आज भी बैचलर्स के कमरे वैसे ही जैसे ये 30 साल पुराना कमरा है। इस फ़िल्म की भी वही ख़ासियत रही सरल शब्दों में बड़ी बात। अंतर इतना था कि फ़िल्म में कॉमेडी का इस्तेमाल भी हुआ। कॉमेडी भी ऐसी कि जिसके साथ हो वो तो रो दे और जो देखे वो हंस पड़े... फ़िल्म में मेरी पंसद रहे लल्लन मियां। भोपाली अंदाज़ में सईद ज़ाफ़री की संवाद अदायगी ने दिल खुश कर दिया... कार का पहिया बदलते ड्राइवर से कहना कि - मियां कार्बोरेटर खराब हो गिया होगा, उसकी ढिब्री कस दो अमां...
इन 30 सालों में लगता है कुछ नहीं बदला है। सबकुछ वैसा ही तो है। लेकिन, कुछ तो बदला ही है, कुछ को तो बदलना ही होगा... परिवर्तन आखिर नियम जो है। तो बदले है ये शहर जहाँ सिद्धार्थ, ओमी, अरूण, नेहा या प्रभा रह रहे थे। आज दिल्ली और मुंबई में ऐसी खुली जगह शायद ही कहीं देखने को मिलें। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो आकाशवाणी सुनते हो सभी के कानों में एफ़एम जो लगे रहते हैं। बसों में आज कौन लाइन में लगकर चढ़ता हैं, क्या किसी के पास ऑफ़िस से छूटने के बाद इतना वक़्त बच पाता होगा कि जिमखाना में जाकर शतरंज खेल सकें, प्यार से बात करते दुकानदार और खरीददार बीते कल की बातें लगते हैं... दोनों ही फ़िल्मों को देखते वक़्त यही लगता रहा कि काश मैं कभी ये दिल्ली देख पाती...
खैर अपनी ये तमन्ना मैं इन फ़िल्मों को देखकर ही पूरी कर लेती हूँ। मुझे लगता है कि हम खुशनसीब है कि हमें ऐसे फ़िल्मकार मिले जो उन पलों, उन घटनाओं, उन लोगों और उस वक़्त को इतने बेहतरीन तरीक़ें से हम तक लाए हैं। वक़्त मिले तो इन फ़िल्मों को ज़रूर देखिएगा। महानगरों में अकेले रहना शायद कुछ आसान हो जाए...
1 comment:
मौका मिला तो जरुर देखेंगे. आभार समीक्षा के लिए.
Post a Comment