शाम सात बजकर तीस मिनिट। मैं ऑफ़िस से काम ख़त्म कर बस स्टॉप पर पहुंची। अंधेरा हो चुका था और हल्की बूंदा-बांदी भी शुरु हो चुकी थी। 15 मिनिट के बाद बस आई। मैं चढ़ी और लेडीज़ सीट पर बैठ गई। बस तक कुछ ख़ास भरी नहीं थी। लेकिन, धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी और थोड़ी देर में बस पूरी भर गई। मैंने यूँ ही पूरी बस में नज़र दौड़ाई तो देखा चारों तरफ आदमी ही आदमी। बस में मैं अकेली लड़की थी। मन डर गया। मैं दम साधकर बैठी हुई थी। अचानक मन में एक विज्ञापन घूमने लगा - कि देश में हर 1000 लड़कों पर 976 या इतनी ही कुछ लड़कियाँ हैं। लड़कियों को बचाइए... और फिर लगा कि इस देश की राजधानी में शाम 7 बजकर 30 मिनिट पर एक पब्लिक बस में मैं अकेली लड़की हूँ......
कुछ ही दूर चलने के बाद एक स्टॉप से कुछ मज़दूर चढ़े। सभी एक साथ थे और बिहार प्रांत के थे।
कन्डक्टर चिल्लाया - चढ़ जाओ चावलों। लेकिन, पैसे पूरे देने होगें।
मज़दूरों ने जवाब दिया - हाँ भईया कमाये है तो देगें ही।
तक़रीबन 15 मज़दूर बस में चढ़ गए। बस आगे बढ़ी। बस के दोनों कन्डक्टरों को उन मज़दूरों से न जाने क्या तकलीफ हुई कि लड़ाई शुरु हो गई। बहसबाज़ी चल ही रही थी कि एक बूढ़े मज़दूर ने कहा - क्या हुआ बेटा वॉट्स यूअर प्रोबल्म। अचानक बस में हंसी का एक फ्फवारा छूट पड़ा। आईटीओ आते ही वो सभी पैदल यात्री ब्रिज के पास उतर गए और स्वचलित सीढ़ियों पर एक दूसरे को धकियाते हुए मस्ताने लगें।
गाड़ी बस स्टॉप पर पहुंची और कुछ लड़कियाँ उसमें चढ़ी। मुझे ना जाने क्यों राहत महसूस हुई।
मौसम अच्छा था। बस की आधी खुली खिड़की से आ रही ठंडी हवा सुखद लग रही थी, कि अचानक बस के पिछले दरवाज़े पर लटके यात्रियों की लड़ाई शुरु हो गई। कुछ नज़र तो नहीं आया लेकिन,जो आवाज़ें कान में पड़ी वो थी - साले तू बहन ..... तेरी बहन को तो मैं ........
फिर दूसरे ने कहा - नीचे उतर तू बहन.... तुझे तो मैं अभी बताता हूँ... पता चलाता हूँ.... बहन के.....
आवाज़ें कानों में पिघले सीसे की तरह जा रही थी। मन हुआ कि उठकर चिल्लाऊ कि तुम्हारी लड़ाई में बहनें कहाँ से आ गई। लेकिन, मैं कमज़ोर थी, मुझमें सिर्फ़ सोचने की हिम्मत थी कहने की नहीं। मेरा स्टॉप आया मैं उतरकर अपने रूम की ओर चल दी......
कैसे लड़ती, अकेली थी, शहर में अकेली रहती हूँ, कौन आता मेरे लिए आगे, कुछ हो जाता तो... अच्छा किया जो कुछ नहीं कहा... इन्हीं दिलासों के साथ मुझे नींद आ गई....
सुबह हुई, उठी, काम किए, तैयार हुई, बस स्टॉप पर आई, बस में चढ़ी, बैठी ही थी कि एक आवाज़ कानों में पड़ी - साले बहन.... साइड में होता है कि मैं आऊं तेरी बहन को...........
4 comments:
आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग चेक कर रहा था और आपके ब्लॉग तक पहुंच गया, वैसे तो मुझे इसके नाम में दिलचस्पी मुझे यहां तक खींच लाई,
खैर, आपके इस पोस्ट में दो उत्पीडि़त तबकों की बात हुई एक तो सर्वहारा की और दूसरी डबल सर्वहारा की (जैसा कि हम दोस्त लोग कभी कभी बातचीत में कहते हैं) यानी स्त्री की। क्योंकि उसके मालिक के शोषण के साथ-साथ पुरुषवादी समाज का उत्पीड़न भी झेलना पड़ता है। लेकिन जाने-अनजाने आपने स्त्री होने के बावजूद केवल स्त्री ही नहीं, बल्कि मज़दूरों के साथ किए जाने वाले भेदभाव का भी जिक्र किया। यह अच्छा लगा, और स्त्री को तो वाकई यह समस्याएं पेश आती है और गुस्सा भी आता है। आप कह सकती हैं कि महज गुस्से से कुछ नहीं होता, तो यह सही होगा, लेकिन कोई भी लड़ाई अकेले और अलग थलग नहीं लड़ी जाती उसके लिए समान विचार के लोगों को जोड़ना और अन्य संघर्षों से जुड़ना होता है। इस बारे में आपने पोस्ट में नहीं लिखा है, लेकिन मैं मन जो आया वह व्यक्त कर रहा हूं, शायद बैमोका हो, लेकिन :
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता, महफि़ल नहीं देखता
जि़न्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है
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पाश की कविता की पंक्तियां
आपकी 'लड़ाई में बहनें कहाँ से आ गयीं' बात मुझे बहुत अच्छी लगी। याद नहीं कहाँ पर कहीं एक विज्ञापन देखा था इस विषय पर। संदीप ने बिल्कुल सही बात कही है, लडाई गुस्से से नहीं, लड़ने से जीती जाती है!
bahut behtar likha hai aapne.
BADHIYA LIKHA DIPTI AAPNE.... BLOG BHI ACHCHA HAI AAPKA
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