मुझे गाड़ी चाहिए। मैं बिना गाड़ी के कॉलेज नहीं जाऊंगी, बस में सफर और मैं... ये ज़िद्द मैंने आज से कुछ 6 साल पहले भोपाल में की थी। उस साल मैं कॉलेज में एडमिशन लेनेवाली थी। ये बात आज अचानक ही उस वक़्त याद आ गई जब मैं पसीने से तरबतर बस में लटकी हुई ऑफ़ीस आ रही थी। एक बार को लगा कि क्यों हूँ यहाँ? एक ऐसे शहर में जहाँ इंसान भे़ड-बकरी से भी गए बीते हैं। कोई व्यवस्था नहीं है। सुबह से रात तक मरते रहो, काम करते रहो। याद आया कि भोपाल में कितना आराम था। सड़क पर गाड़ी चलाओ तो लगता था कि अकेले ही चल रहे हो। चौड़ी सड़कें, चारों ओर हरियाली और शांति। मन की ये बात जब भी किसी को बताई सामने से एक ही जवाब मिला कि पसंद तुम्हारी ही है, लौट जाओ। लेकिन, क्या जवाब इतना ही आसान है? जो ये जवाब देते हैं वो भी अपने छोटे-छोटे शहरों से निकलकर यहाँ बसे हुए और कुंठा उनमें भी हैं। कई तो ऐसे हैं कि यहाँ रहते हैं, काम करते हैं, रोते-झीकते हैं, लेकिन वापस नहीं लौटना चाहते हैं। वजह एक है - हम जहाँ से आएं हैं वहाँ सूकुन तो है, इतना आराम तो है कि चैन से सो सकें, सपनें देख सकें। लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए बाहर निकलना ज़रूरी हो जाता है। सपनों को साकार करने का रॉ मटैरियल ये मैट्रो शहर ही दे रहे हैं। भले ही यहाँ आकर हमारी नींद उड़ जाए, जिस सपने को साकार करने आए थे वो ही मर जाए। पिछले दो सालों में भोपाल एक्प्रेस में बड़ी भीड़ इस बात का सबूत है कि कैसे भोपाल का युवा पलायन कर रहा हैं। बेहतर पढ़ाई के लिए, बेहतर नौकरी के लिए। मेरा पलायन के साथ पहला इन्काउन्टर माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी में हुआ, जहाँ मैंने पाया कि मेरी क्लास में मैं अकेली थी जो भोपाल शहर की ही थी। बाक़ियों में से ज़्यादातर बिहार, उत्तर प्रदेश से वहाँ पढ़ने आए थे। जब मैं उनसे मिली थी वो कम्प्यूटर को छूने से भी डरते थे। यूनिवर्सिटी में लेक्चर देने आनेवाले पत्रकारों को कुछ यूँ देखते थे कि वो एलिअ हो। लेकिन, आज उनमें से कई यहाँ बड़े-बड़े चैनलों में काम कर रहे हैं। एक आत्मविश्वास के साथ जी रहे है। इस भागते हुए शहर ने हम जैसों को बदतर-से-बदतर परिस्थिति में जीना सीखा दिया हैं। जहाँ हम अपने शहरों में घर पर आए मेहमानों से भी शर्माते थे, कोई कुछ कह दे तो चुपचाप सुन लेते थे। वही यहाँ आने के बाद लोगों से मिलना, बात करना सीख गए हैं(कभी-कभी झगड़ना भी)। ये शहर हमारे अंदर बदलाव कर रहे हैं, हमें वक़्त के साथ भागना सीखा रहे हैं, सीखा रहे हैं कि तुम जो चाहो वो पा सकते हो बोलो तुम्हें क्या चाहिए? लेकिन, दुनिया में कुछ भी मुफ़्त नहीं। सफलता मिल रही हैं ख़ुद को खोकर। भागना सीख रहे हैं, अपनों को पीछे छोड़कर। सब कुछ पा रहे है, रिश्तों के मोल में। रोज़ उठती हूँ, तैयार होती हूँ, ऑफीस जाती हूँ, काम करती हूँ, रूम आती हूँ, फिर काम करती हूँ, सो जाती हूँ। इस सब के बीच समय चुराती रहती हूँ - ख़ुद के लिए कि कुछ पढ़ लूँ, लिख लूँ, मां-पापा, दोस्तों से बात कर लूँ। मैंने अपना समय, सुकून, घर, दोस्त दांव पर लगाए हैं अपने एक सपने के लिए...
5 comments:
good feeling.
kabhi kabhi kuch paristhiti me ye jaroori bhi ho jaata hai
Acha likha apane bahut....... SAch
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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास
शायद इसी का नाम जिन्दगी है!! उम्दा लेखन!
दीप्ति, ये भारत के हर छोटे शहर की कहानी है। जो धीरे धीरे कुछ खोता सा जा रहा है।
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